03-01-2021, 08:21 AM
Episode 4 : Part IV
ढाई कमरे के मकान का तीसरा कमरा बिना छत का था। एक कमरे में ठाकुर, ठकुराईन और पुलकित सोते थे तो दूसरे में पुलकित की नानी और संध्या। पुलकित की नानी को संध्या फूटी आंख न सुहाती थी। उसकी देखभाल की जिम्मेदारी भी उसी पर आन पड़ी थी। पर वो उसे छूती तक नहीं थी। संध्या को खाना तभी मिलता जब पुलकित की नानी उसके रोने की आवाज़ से थक जाति। अगर बच्ची कभी कुछ गलती से मांग देती तो बुढ़िया उसे खड़ी खोटी सुनाती। कभी कभी तो एक दो झापड़ भी जड़ देती।
ठकुराइन अपनी मां के स्वभाव से परिचित थी। वो राधेश्याम ठाकुर के दरियादिली, अपनी किस्मत और परिस्थिति से गुस्सा ज़रूर थी, और ये गुस्सा अकसर उसके बात और व्यवहार में झलक आता था। पर वो मन से संध्या से चिढ़ती नहीं थी। जब दो महीने तक संध्या को ठाकुर जी वापस छोड़ने नहीं गए तो ठकुराइन को आभास होने लगा था कि ठाकुर जी बच्ची को अपने पास ही रखना चाहते हैं। जब पुलकित पेट में था तब ठाकुर जी ने कई बार कहा था की बेटी होगी। ठकुराइन का वात्सल्य भी संध्या के प्रति जागने लगा था। पर वो समय की मार झेल कर सख्त हो चुकी थी। उनका प्रेम वात्सल्य उनके चेहरे पर कभी गलती से भी नहीं आता। अपना प्रेम वो अपने मन में ही रखती थी। विशेषकर ठाकुर जी के सामने तो वो अपने चेहरे पर ऐसा भाव रखती की बच्ची को देखना तक नहीं चाहती हो। पर अपनी मां से जितना हो सके वो संध्या का बचाव करती थी। अपनी मां को कई बार कड़े शब्दों में स्पष्ट रूप से बोल चुकी थी कि किसी भी स्थिति में बच्ची पर हाथ न उठाए।
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ढाई कमरे के मकान का तीसरा कमरा बिना छत का था। एक कमरे में ठाकुर, ठकुराईन और पुलकित सोते थे तो दूसरे में पुलकित की नानी और संध्या। पुलकित की नानी को संध्या फूटी आंख न सुहाती थी। उसकी देखभाल की जिम्मेदारी भी उसी पर आन पड़ी थी। पर वो उसे छूती तक नहीं थी। संध्या को खाना तभी मिलता जब पुलकित की नानी उसके रोने की आवाज़ से थक जाति। अगर बच्ची कभी कुछ गलती से मांग देती तो बुढ़िया उसे खड़ी खोटी सुनाती। कभी कभी तो एक दो झापड़ भी जड़ देती।
संध्या और डर गई थी। चुप चाप, कोने में दबी सी रहती। न तो कुछ बोलती, न हंसती, न खेलती। पुलकित बार बार उसके साथ खेलने के लिए जिद्द करता। और पुलकित के साथ खेल कर संध्या भी पुलकित होती थी। पर अगर गलती से पुलकित गिर जाए, चाहे गलती संध्या की हो या न हो, डांट संध्या को पड़ती। फिर ठकुराईन के आने पर घी मसाला मिला कर नानी की कहानी शुरू हो जाती। अगर कभी पुलकित का पैर फिसल गया तो "आज तो संध्या ने पुलकित का पैर ही तोड़ दिया होता। वो तो मैंने समय पर आकर उसे बचा लिया।" कभी संध्या का कुहनी पुलकित के सिर पर लग गया तो "आज तो ये कलमुही इसका आंख ही फोड़ देती। मैं कहती हूं तो तुम मेरी बात नहीं मानती। ये लड़की मनहूस है। कभी कुछ उल्टा सीधा हो गया तो फिर मुझे कुछ मत कहना।"
ठकुराइन अपनी मां के स्वभाव से परिचित थी। वो राधेश्याम ठाकुर के दरियादिली, अपनी किस्मत और परिस्थिति से गुस्सा ज़रूर थी, और ये गुस्सा अकसर उसके बात और व्यवहार में झलक आता था। पर वो मन से संध्या से चिढ़ती नहीं थी। जब दो महीने तक संध्या को ठाकुर जी वापस छोड़ने नहीं गए तो ठकुराइन को आभास होने लगा था कि ठाकुर जी बच्ची को अपने पास ही रखना चाहते हैं। जब पुलकित पेट में था तब ठाकुर जी ने कई बार कहा था की बेटी होगी। ठकुराइन का वात्सल्य भी संध्या के प्रति जागने लगा था। पर वो समय की मार झेल कर सख्त हो चुकी थी। उनका प्रेम वात्सल्य उनके चेहरे पर कभी गलती से भी नहीं आता। अपना प्रेम वो अपने मन में ही रखती थी। विशेषकर ठाकुर जी के सामने तो वो अपने चेहरे पर ऐसा भाव रखती की बच्ची को देखना तक नहीं चाहती हो। पर अपनी मां से जितना हो सके वो संध्या का बचाव करती थी। अपनी मां को कई बार कड़े शब्दों में स्पष्ट रूप से बोल चुकी थी कि किसी भी स्थिति में बच्ची पर हाथ न उठाए।
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बस का सफर
संध्या की दास्तान | खण्ड १ : उदय
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